मेघदूत एग्रो, नई दिल्ली: हर साल अप्रैल में उल्लास और आध्यात्म की सौगात लेकर आने वाला Baisakhi 2025 का पर्व इस बार 13 अप्रैल को देशभर में उत्साहपूर्वक मनाया जा रहा है। विशेष रूप से उत्तर भारत के राज्यों—पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में यह दिन नई फसल की कटाई की खुशी और सामाजिक समरसता के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। मेष संक्रांति के अवसर पर मनाया जाने वाला यह पर्व सिर्फ कृषि से जुड़ी खुशियों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सिख धर्म के इतिहास में भी एक अत्यंत गौरवशाली दिन है।
13 अप्रैल 1699 को आनंदपुर साहिब में सिखों के दसवें गुरु गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना कर न केवल धर्म की रक्षा के लिए संगठित शक्ति का आह्वान किया, बल्कि जातिवाद जैसी सामाजिक कुरीतियों को भी खुली चुनौती दी। आज भी सिख श्रद्धालु इस दिन को “धार्मिक पुनर्जागरण” का पर्व मानते हैं और गुरुद्वारों में विशेष अरदास, भजन-कीर्तन और नगर कीर्तन का आयोजन कर गुरु परंपरा को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
बैसाखी का यह पर्व किसानों के लिए भी नये आरंभ और समृद्धि का प्रतीक है, जब गेहूं की फसल खलिहानों से मंडियों तक पहुंचती है। देश के अलग-अलग हिस्सों में इस दिन को विविध रूपों में मनाया जाता है—बंगाल में “नववर्ष”, असम में “बिहू”, केरल में “विशु” और तमिलनाडु में “पुथंडु”।
ऐसे में यह पर्व भारतीय संस्कृति की विविधता में एकता की मिसाल पेश करता है। इस अवसर पर गुरु ग्रंथ साहिब के आगे शीश नवाना, लंगर सेवा में भाग लेना, और धार्मिक मूल्यों की पुनर्पुष्टि करना आज भी सामुदायिक चेतना को मजबूत करता है।
Baisakhi 2025 केवल एक पर्व नहीं, बल्कि एक ऐसी ऐतिहासिक स्मृति है जो हमें कर्म, धर्म और परंपरा की गहराइयों से जोड़ती है। चाहे वह किसान की मेहनत हो या सिख धर्म का बलिदान—बैसाखी हर बार एक नई ऊर्जा के साथ लौटती है और हमें हमारी जड़ों की याद दिलाती है।