मेघदूत एग्रो, नई दिल्ली: High Court on Live-in Relationship को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट का एक अहम फैसला सामने आया है, जिसमें दो अलग-अलग धर्मों से ताल्लुक रखने वाले बालिग महिला-पुरुष को विवाह किए बिना एक साथ रहने की संवैधानिक मान्यता दी गई है। यह मामला उस समय चर्चा में आया जब एक साल चार महीने की बच्ची ने अपने माता-पिता की ओर से अनुच्छेद 226 के तहत रिट याचिका दायर की।
जस्टिस शेखर बी. सराफ और जस्टिस विपिन चंद्र दीक्षित की पीठ ने साफ तौर पर कहा कि भारत का संविधान बालिगों को यह अधिकार देता है कि वे अपनी पसंद से बिना विवाह के भी साथ रह सकें। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि महिला अपने पूर्व पति की मृत्यु के बाद दूसरे पुरुष के साथ 2018 से रह रही है, जिससे इस बच्ची का जन्म हुआ।
कोर्ट ने संभल के पुलिस अधीक्षक को निर्देश दिया कि यदि इस जोड़े को किसी प्रकार की धमकी या डर महसूस हो और वे थाना चंदौसी से संपर्क करें, तो उनकी शिकायत तुरंत दर्ज की जाए और उनके सुरक्षा के अधिकारों की समीक्षा भी की जाए।
बच्ची की मां ने अदालत में यह भी बताया कि उनके पहले के सास-ससुर से उन्हें और उनके जीवनसाथी को खतरा है, लेकिन पुलिस न तो उनकी प्राथमिकी दर्ज कर रही है और न ही उन्हें संवैधानिक सुरक्षा दे रही है। कोर्ट ने यह भी दोहराया कि लिव-इन रिलेशनशिप, खासकर जब दोनों पक्ष बालिग हों, अब कोई अपराध नहीं है, बल्कि यह व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता का हिस्सा है, जिसे संविधान का समर्थन प्राप्त है।
यह ऐतिहासिक टिप्पणी न केवल सामाजिक मान्यताओं को चुनौती देती है बल्कि यह भी दर्शाती है कि High Court on Live-in Relationship जैसी संवेदनशील बहस में न्यायपालिका अब मानवीय दृष्टिकोण को महत्व दे रही है। यह फैसला उन कई जोड़ों के लिए राहत लेकर आया है जो धर्म, जाति या सामाजिक बाधाओं के कारण विवाह नहीं कर सकते, लेकिन एक सुरक्षित जीवन जीना चाहते हैं।
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