Mustard Variety: भरतपुर स्थित भारतीय रेपसीड-सरसों अनुसंधान संस्थान के निदेशक पी.के. राय ने हाल ही में बताया कि सरसों की बुवाई में कमी के बावजूद उत्पादन क्षमता पिछले साल के स्तर पर बनी रहेगी। उनका कहना है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने और बेहतर उत्पादकता के लिए नई, कम अवधि वाली किस्मों पर काम जारी है।
सरसों की खेती में क्या बदला इस साल?
भारत में सरसों की खेती का प्रमुख हिस्सा राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा और उत्तर प्रदेश से आता है। लेकिन इस साल, राजस्थान में बुवाई क्षेत्र में गिरावट दर्ज की गई है। इसके पीछे दो मुख्य कारण हैं:
- जलवायु प्रभाव: अक्टूबर-नवंबर के दौरान उच्च तापमान ने सरसों बुवाई को प्रभावित किया।
- फसल विविधीकरण: राजस्थान में मानसूनी बारिश के कारण कुछ इलाकों में चने और गेहूं की खेती को प्राथमिकता दी गई।
उत्पादन में गिरावट नहीं होगी
पी.के. राय का कहना है कि भले ही सरसों का रकबा कम हुआ हो, लेकिन इस बार किसी गंभीर रोग का प्रकोप नहीं है। अगर अगले 10-20 दिनों तक मौसम सामान्य रहता है, तो सरसों की अच्छी फसल की उम्मीद है।
उन्होंने कहा, “हम कम अवधि में ज्यादा पैदावार देने वाली किस्मों को विकसित कर रहे हैं। ये किस्में न केवल जलवायु के प्रभाव को झेल सकेंगी, बल्कि उत्पादकता भी बढ़ाएंगी।”
नई किस्मों पर काम जारी
भारतीय वैज्ञानिक उन सरसों की किस्मों को विकसित करने में लगे हैं जो:
- टर्मिनल हीट टॉलरेंस और सूखे का सामना कर सकें।
- विट्रीअस प्रतिरोधी और ऊंचाई में बेहतर हों।
- कम समय में अधिक पैदावार दें।
राय के अनुसार, अगले 2-3 सालों में ऐसी किस्में किसानों को उपलब्ध होंगी जो पैदावार में क्रांति ला सकती हैं।
तिलहन रकबे में गिरावट का कारण
राजस्थान का सरसों उत्पादन में 46% योगदान है। लेकिन इस साल बुवाई में कमी की वजहें इस प्रकार हैं:
कारण | प्रभाव |
---|---|
उच्च तापमान | बुवाई में देरी या रकबा घटा। |
अच्छा मानसून | अन्य फसलों (चना, गेहूं) को प्राथमिकता। |
जलभराव | सरसों की बुवाई में बाधा। |
सरसों उत्पादन के लिए भविष्य की योजनाएं
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के तहत नई किस्मों पर परीक्षण जारी है।
- जर्मप्लाज्म विकास: ऐसे बीज जिनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता हो।
- जलवायु अनुकूलता: बदलते मौसम में बेहतर प्रदर्शन।
- उत्पादकता: कम लागत और अधिक मुनाफा।
किसानों को राहत देने की कोशिश
नई किस्मों से किसानों को फायदा होगा, खासकर उन क्षेत्रों में जहां जलवायु चुनौतियां हैं। यह पहल तिलहन आयात पर भारत की निर्भरता को भी कम कर सकती है।
सरसों उत्पादन में आई कमी को ध्यान में रखते हुए, भारतीय वैज्ञानिक कम अवधि में अधिक पैदावार देने वाली किस्मों को विकसित करने में लगे हैं। यह कदम न केवल किसानों की आय बढ़ाएगा बल्कि भारत को तिलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में भी मील का पत्थर साबित होगा।
Comments are closed